ॐ
नमो भगवते उत्तमश्लोकाय नम आर्यलक्षणशीलव्रताय
नम
उपशिक्षितात्मन उपासितलोकायनमः साधुवाद निकषनाय
नमो
ब्रह्मण्यदेवाय महापुरुषाय महाराजाय नम इति॥
{श्रीमद्भागवत...5.19.3}
जिसका प्रायः सभी
सम्मानपूर्वक स्मरण करें ऐसे व्यक्ति को ‘उत्तमश्लोकाय’ कहा जा सकता है। जिसने अपने विचार, व्यवहार तथा शब्दों को सदैव श्रेष्ठतम लक्षणों से युक्त रखने का व्रत ले
रखा हो, ऐसा व्यक्ति ‘आर्यलक्षणशीलव्रताय’ कहा जाएगा। स्तुति की प्रथम पंक्ति में ऐसे राम का नमन किया गया है। किन्ही
गुणों को पूरी तरह अपने जीवन में उतारने का व्रतपूर्वक प्रयत्न करते रहने से ही
चरित्र का निर्माण होता है। व्रतभंग होने की दशा में प्रायश्चित तो होना ही चाहिए, वह भी इतना कठोर कि भविष्य में व्रतभंग कि संभावना ही न रहे।
चारित्रिक
दृढ़ता व्यक्ति की विश्वसनीयता से आँकी जा सकती है। चारित्रिक दृढ़ता के बिना
धर्मपालन संभव नहीं। धर्म क्या है और अधर्म क्या है, इसका
ज्ञान तो बहुतों को होता है, पर वे बिरले ही होते हैं जो मन, वचन और कर्म से धर्म का पालन सहज रूप से करने की क्षमता रखते हों। और, ऐसे कि जिनके विचार, व्यवहार और शब्द ही धर्म को परिभाषित करते हों तो राम ही माने जा सकते
हैं।
साधारण से साधारण मनुष्य
भी पुत्र तथा भाई तो होता ही है। राम भी पुत्र थे, एक जननी
थीं तथा दो विमताएं; तीन छोटे भाई भी थे, विमाताओं के पुत्र। संभवतः राम की स्थिति इस संबंध में बहुत साधारण नहीं
थी, अर्थात कुछ विषम ही थी। परंतु उन्होने उस विषम सी स्थिति
को मात्र सम ही नहीं किया, वरन इतना प्रेममय कर दिया कि
परिवारजन भी अपने आप में उदाहरण बन गए। कैकेई जैसी माँ भी कुछ न बन सकीं तो भी पश्चाताप
का दृष्टांत तो बन ही गईं। भले ही राम दशरथसुत या कौशल्यानन्दन कहाते हों, पर उनका समस्त परिवार राम को ही केंद्र मान कर जाना जाता है, वह भी ऐसे कि राम के परिवार जनों की ख्याति राम द्वारा प्रदत्त गुणों से
ही होती है। जैसे भरत की राम भक्ति और लक्ष्मण का सेवामय शौर्य का कारण राम ही तो
थे। जब किसी एक के धर्मपालन के कारण अन्य भी धर्म पालन करने लगें, तो अनायास ही धर्म का विस्तार हो ही जाता है। प्रतिकूल पारिस्थियों से
धर्म के किसी न किसी रूप की उत्पत्ति; और उन्ही या उनसे भी
विषम स्थितियों में धर्म की स्थापना एवं विस्तार! पिता की आज्ञा से राजतिलक के लिए
तैयार हो जाना और फिर पिता की आज्ञा के बिना ही राज्य का त्याग और वनगमन का निर्णय
स्वतः ले लेना, जैसे वे ही राजा हों पुत्रधर्म का आदर्श निर्धारित
करता है। हर परिस्थिति में धर्म-अधर्म का चिंतन तथा स्वतः पर पूर्ण दायित्व लेते
हुये उसका निर्वाह, राम के चरित्र की यही विशेषता राम को
धर्म का आदर्श बनाती है।
राम द्वारा शिष्य-धर्म का पालन
विशिष्ट है। इसमें गुरु-भक्ति और गुरु-सेवा तो है ही, ज्ञान ग्रहण करने की प्रबल अभिलाषा तथा योग्यता दोनों ही हैं। राम असाधारण
शिष्य हैं, जिसमे जिज्ञासा, अन्तर्दृष्टि, वैराग्य, विश्लेषण
क्षमता, कल्पनाशीलता, धैर्य, विवेक और विनय सभी कुछ साथ साथ है। राम को गुरु-तुल्य ज्ञानी जनों से ग्रहण
करने योग्य जो भी दीख पड़ा, उन्होने अपने विनय से उसे प्राप्त कर ही लिया। सीता स्व्यंवर
के समय ऋषि विश्वामित्र के अनुशासन में रहते हुये भी उन्होने क्षत्रियों के घोर शत्रु
परशुराम तथा राजर्षि जनक से जो कुछ भी ग्रहण करने योग्य था ग्रहण भी किया तथा उन्हे
परम संतोष प्रदान कर गुरु दक्षिणा भी दे डाली।
लेख के इस भाग में हम मात्र
राम के पुत्र-धर्म तथा शिष्य-धर्म पालन का आंशिक रूप से वर्णन कर पाये हैं, अभी क्षत्रिय-धर्म, भ्रातृ-धर्म, मित्र-धर्म, राज-धर्म, पति-धर्म
आदि शेष है, फिर भी यह स्पष्ट होने लगा है कि मनुष्य के लिए राम
का चरित्र ही सबसे अधिक सुलभ और श्रेष्ठतम आदर्श है।
‘जय श्रीराम’ यदि अपने आप में कोई मंत्र नहीं, तो कम से कम मनुष्य
के चरित्रोत्थान के लिए एक विनम्र मंत्रणा तो है ही।
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