Thursday, 3 November 2016

जय श्रीराम [3]

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नमो भगवते उत्तमश्लोकाय नम आर्यलक्षणशीलव्रताय
नम उपशिक्षितात्मन उपासितलोकायनमः साधुवाद निकषनाय
नमो ब्रह्मण्यदेवाय महापुरुषाय महाराजाय नम इति॥
{श्रीमद्भागवत...5.19.3}

सीता स्वयंवर आयोजन में राम का भाग लेना न तो किसी पारिवारिक आदेश का पालन था और न किसी राजकीय आदेश का। इसका विचार राम के मन में भी अंकुरित नहीं हुआ था। यह तो एक ऋषि का, विश्वामित्र का विचार था। यह सही है कि सीता को देख कर उनसे जुड़ने कि इच्छा राम के अन्तर्मन में प्रस्फुटित हो चुकी थी, फिर भी उन्होने इसे कर्तव्य मानते हुये स्वयं को गुरु के अनुशासन में बांधे रखा तथा इस सम्पूर्ण आयोजन में शिष्य-धर्म, पुत्र-धर्म, क्षत्रिय-धर्म, भविष्य के पति-धर्म तथा अयोध्या एवं जनकपुर के प्रजाधर्म का यत्न पूर्वक पालन किया, साथ ही साथ वे भ्रातृ-धर्म को भी न भूले। यह एक अवसर था जब न केवल अनेक सामाजिक धर्मों के निर्वाह का उत्तरदायित्व उन पर आन पड़ा था, वरन अनेकों पारम्परिक त्रुटियों का समाधान भी उन्हें करना था; जो उन्होने किया।


राम के सम्पूर्ण जीवन में जो भी घटित हुआ वह सामान्य नहीं था। अत्यंत असामान्य स्थितियों में भी जिस प्रकार राम ने परमार्थ को स्वार्थ के ऊपर रख कर, समष्टि को व्यष्टि के ऊपर रख कर, अकर्तव्य को अलग कर कर्तव्य का निर्धारण कर, अधर्म को त्याग कर धर्म का पालन कर एक आदर्श मानव-धर्म कि स्थापना की उसका दूसरा उदाहरण नहीं मिलता।

सीता-हरण के बाद पति-धर्म की ओर समर्पित राम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट उनके लिए पहली आशा की किरण थी। शक्तिशाली बाली जिसने सुग्रीव की पत्नी को बल पूर्वक छीनने का पाप-कर्म किया था किसी भी प्रकार के धर्मयुद्ध का अधिकार खो चुका था। बिना समय को गँवाए उसको पराजित कर सुग्रीव के राज्य तथा पत्नी को पुनः प्राप्त करना आवश्यक था। धर्मच्युत व्यक्ति विश्वसनीय नहीं होता। उन परिस्थितियों में जैसे भी हो बाली का वध ही धर्म था। राम ने एक पेड़ की आड़ में छुप कर उसका अंत कर दिया, तथा यह करने में यदि कोई   पाप-कर्म था, तो उसका वहन भी स्वयं किया, सुग्रीव को सहभागी नहीं बनाया।

उस काल में समाज में स्त्री द्वारा जाने-अनजाने में पतिव्रत धर्म का उल्लंघन क्षम्य अपराध नहीं माना जाता था तथा प्रजा धर्म का पालन करे यह सुनिश्चित करना राजा का कर्तव्य था। सीता के रावण द्वारा अपहरण और लंका वास को लेकर जब अयोध्या की प्रजा में संदेह  की सुगबुगाहट हुई तो उसका समाधान असंभव था। राम ने जीवनपर्यन्त दुःख सहन कर भी सीता का त्याग करने का अतिकठोर निर्णय लिया। राम चाहते तो फिर एक बार राज्य त्याग कर पतिधर्म का निर्वाह कर सकते थे, परंतु जब धर्मानुसार राजधर्म पतिधर्म, पुत्रधर्म, भ्रातृधर्म आदि से ऊपर माना जाता हो तो राम का राज्य त्यागना रघुकुल पर दशरथ के कैकेई प्रेम के बाद एक और कलंक लगाना होता। सीता को दंडित न कर या राम के राज्यत्याग द्वारा स्त्रीमात्र के सम्मान की बात भी अधूरी रह जाती; यह जग न तो सियाराममय होता, न राममय होता और न ही मनुष्य जीवन की श्रेष्ठता का आदर्श भी आने वाली पीढ़ियों को उपलब्ध हो पाता।

निःसंदेह राम की स्तुति में आर्यलक्षणशीलव्रताय नमः कहना उचित ही है।


प्रमोद कुमार शर्मा

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