प्रकृति
के नियम बदलते नहीं। सभी ग्रह अपनी-अपनी निश्चित गति के अनुसार सूर्य की परिक्रमा अनंत
काल से करते आ रहे हैं, आज भी कर रहे हैं और भविष्य में भी
करते रहेंगे। वे अपनी धुरी पर भी अपनी-अपनी गति से वक्राकार घूमते रहते हैं।
फलस्वरूप, ऋतुयेँ नियमानुसार बदलती रहतीं हैं। रात और दिन भी
नियमानुसार निश्चित समयाविधि के होते हैं। जल वाष्पीकृत होकर ऊपर जाकर बादलों के रूप में एकत्रित होता
है। हवा उन्हें इधर उधर उड़ा ले जाती है, भार बढ़ने पर वे
वर्षा करते हैं। आकाश-तत्व, वायु, जल, सूर्य से प्राप्त ताप व प्रकाश तथा पृथ्वी-तत्व यही सब भौतिक जीवन के
कारक हैं; वह जीवन जिसकी भी लगभग निश्चित समयाविधि होती है; शैशव, बाल्यावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था और अंत में मृत्यु।
प्रकृति के नियम नहीं
बदलते। मनुष्य को छोड़ कर अन्य जीव तो प्रकृति-चक्र के अनुरूप जीने को स्वाभाविक
रूप से बाध्य होते हैं। परंतु मनुष्य अपनी स्वतंत्र बुद्धि का स्वामी होने के कारण प्रकृति पर विजय प्राप्ति की अपनी क्षमता के
भ्रम में पड़ जाता है, और इसी अभिमान से ग्रस्त होकर प्रकृति-चक्र
की न्यूनाधिक अवहेलना कर बैठता है; फलस्वरूप कष्ट भी पाता है।
प्रकृति के नियमों की तरह
ही मानवीय मूल्यों को सर्वोपरि रखने वाले कुछ मनुष्य-समाज भी देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार लंबे समय के अनुभवों के आधार पर कुछ
सामाजिक नियमों की स्थापना करते हैं, और उस समाज के घटकों से
यह अपेक्षा करते हैं के वे उन नियमों का पालन करेंगे। यद्यपि सामाजिक नियम, प्रकृति के नियमों की भांति अनंत काल के लिए नहीं होते, समय तथा परिस्थियों के बदलने पर उनमें सुधार लाना ही होता है; फिर भी सभ्य मनुष्य समाज में इन नियमों को यथोचित सम्मान देकर उनका पालन
करने की प्रथा रही है। जबकि प्राकृतिक नियमों का पालन करना मनुष्य की बाध्यता है; सामाजिक नियमों का अनुपालन उसकी स्वेच्छापूर्ण सहमति पर आधारित बंधन है।
आधुनिक काल में मनुष्य की तीक्ष्ण
बौद्धिक क्रियाशीलता, वस्तुपरक कामनाओं की अधिकता एवं कल्पनाशीलता ने वैयक्तिक
स्वतन्त्रता को स्वच्छंदता की बंधनहीनता में फैलाकर निजता के दायरे में सिकोड़ दिया
है। ऐसे में मनुष्य की स्वेच्छापूर्ण सहमति की विश्वसनीयता पर संदेह की छाया पड़ने लगी
है। मनुष्य ऐसी राजनीति और न्याय-व्यवस्था को स्वीकार करने में स्वयं को अधिक सहज पाता
है जिसमें आचरण में त्याग, उत्सर्ग, श्रद्धा
एवं विश्वास के बन्धन के स्थान पर बुद्धि-चापल्य और तार्किक परिभाषाओं व विश्लेषणों
द्वारा अर्जित स्वच्छंदता की प्रचुर संभावनायेँ हों।
प्रकृतिक नियमों का रचयिता
ईश्वर जानता है कि नियम बन्धन कदापि नहीं होते; वे सृष्टि कि निरंतरता
से पोषित और संचालित और सृष्टि को ही समर्पित अनुशासन संकल्प होते हैं। कदाचित, सामाजिक नियमों का रचयिता मनुष्य भी यह जानता है; पर
विडम्बना यह है कि बुद्धि का अतिरेक, मनुष्य के लिये जो जानने
योग्य है उसे पहचानने में प्रायः भ्रम कि स्थितियां उत्पन्न कर सकता है।
प्रमोद
कुमार शर्मा
[The writer of this blog is also the author of “Mahatma A
Scientist of the Intuitively Obvious” and “In Search of Our Wonderful Words”.]
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